ये प्यार क्या बला है??
सुना था प्यार पर दुनिया टिकी है। सदियों से प्यार के किस्से भी सुनते आ रहे हैं,, लैला - मजनु,, सोनी - महिवाल,, रोमियो - जूलियट और न जाने ऐसे कितने ही लेकिन.....
ये इश्क तब भी रुलाता था और आज भी रुलाता ही है....
तो फिर लोग दुनिया में प्यार बांटने को कहते क्यूँ हैं?? ये समझ नहीं आता मुझे,, ख़ैर,,,,,
प्यार में रोने वाले लोगों को समर्पित...
हालातों के आगे क्यों मजबूर होना पड़ता है??
चल कर राह में साथ इतनी दूर तक,,,
एक दिन अकेले तन्हा क्यूँ हो जाना पड़ता है??
बला क्या है ये इश्क - मोहब्बत??
क्यों इसमें सिर्फ अश्क ही मिलता है??
अगर ये गुनाह है मेरे ख़ुदा,,,
तो कृष्ण के साथ राधा का नाम पाक क्यूँ माना जाता है??
प्यार तो ख़ुदा की रहमत है ??
फिर इसे क्यू अनेकों तराजुओं में तोला जाता है??
अमीरी-गरीबी,, जात-पात
जाने कितनी कसौटियों से इसे क्यूँ गुजरना पड़ता है??
क्यूँ इसे मजहबों की खातिर कुर्बान होना पड़ता है??
चलकर राह में साथ दूर तक...
क्यूँ एकदम से कहीं रुक जाना पड़ता है
??
वापस अकेले तनहा ही...
क्यूँ लौट के आना पड़ता है??
क्यूँ
???
नारी जीवन...
चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


(एक नारी का जीवन सच में काफ़ी संघर्ष पूर्ण है और उसी को व्यक्त करने का एक प्रयास....)
क्या
है एक नारी का जीवन???

पहले बेटी , बहन फिर पत्नी , बहु और माँ... फिर किसी की दादी ,किसी की नानी और न जाने ऐसे कितने ही रिश्ते ...

इन रिश्तों के बीच उसकी पहचान कहीं खो सी जाती है...

क्या है उसकी पहचान शायद वो जानती ही नही...

क्या है एक नारी का जीवन???

क्या कभी वो अपनी खुशी के लिए जी पाती है,, शायद वो अपनी खुशी के बारे में जानती ही नही या कह सकते हैं सोचती ही नही...

अपने परिवार की ही खुशियाँ क्या काफी नही ??? यही सब सोच उसने अपने बारे में कभी सोचा ही नही ...

क्या यही है एक नारी का जीवन??

हर एक बन्दा चाहे उस पर विचार अपने थोपना ,, चाहे हो पिता, बेटा, माँ, सास या फिर सजना अपना... क्या सोचा उसका भी है अरमान अपना,, कि वो भी सच कर सके सपना अपना.... किसी ने कभी उसका कोई अरमान ना जाना....

क्या यही है एक नारी का जीवन??

कहने को तो लोग हमेशा कहते हैं :-

"नारी का सम्मान, राष्ट्र का निर्माण"

क्या कभी किसी ने इस वाक्य को माना??

क्या सच में नारी का सम्मान करना जाना??? जाना तो सिर्फ़ उसे एक खिलौना जाना ... आदर की नज़रों से एक स्त्री को देखना भी जाना तो एक गुनाह जाना... नारी ने कभी क्या है ये कहाँ जाना??

क्या यही है एक नारी का जीवन??

क्या यही है एक नारी का जीवन??

ख़ुद में अनसुलझी रहती है हर नारी... हर किसी काम के लिए उसे रहना पड़ता आभारी... आत्मनिर्भर कभी हो पाई है क्या नारी?? हाँ कहती जरुर है ख़ुद को self- depend... लेकिन सच क्या है ये जाने है हर नारी...

क्या यही है एक नारी का जीवन??

अरमान रहता हर नारी का, कि उसकी भी अपनी पहचान हो॥ पर होता क्या है?? हर एक पल वो किसी अलग बन्दे की वजह से जानी जाती है, उसकी ख़ुद की ना कोई पहचान है,, इस अरमान को पूरा करने को ये बेताब है॥

ये हो नहीं सकता कभी,, उसे इसका भी आगाज़ है। नारी जीवन की व्याख्या का न कभी अंत है॥

हाँ, सच है नारी जीवन का व्याख्यान अनंत है,,

बस यही है नारी जीवन,, हर पल मिलता उसे एक नया जीवन,,

बस यही है नारी जीवन,,हाँ यही है नारी जीवन...

सहना, सहना,सहना और हर वक़्त कुछ ना कुछ सहना...

यही है एक नारी का आनुवंशिक गहना...

बर्दाश्त की मूरत है नारी,, और जो नहीं कर पाती बर्दाश्त.... नहीं रह पाती इस धरती पर वो नारी.....

लेकिन एक बात समझ नहीं आती कि लोगों ने लिखा तो सिर्फ़ लिखा नारी का जीवन!! क्यों?? क्या एक पुरूष का जीवन उल्लेखनीय नहीं ?? क्या उसके बारे में कभी नहीं लिखा जाना चाहिए?? क्यों?? क्या उनके जीवन में संघर्ष नहीं?? हमेशा स्त्री का संघर्ष क्यों सर्वोपरि रखा जाता है?? कहने को तो स्त्री-पुरूष एक समान माने गए हैं। फिर भी हम सिर्फ़ स्त्री जीवन का ही उल्लेख करते हैं,क्यों ? जबकि सभी जानते हैं कि सबका जीवन संघर्षमय है, फिर चाहे वो एक नवजात शिशु ही क्यों न हो। मैं जहाँ तक समझती हूँ, उससे ये ज़रूर कहूँगी कि पुरूष या स्त्री सब के संघर्ष समान हैं तो दोनों का ही उल्लेख किया जाना चाहिए। हाँ, आज भी लोग स्त्री को छोटा दिखाने की भरपूर कोशिश करते हैं। मनुष्य जीवन आधुनिकता के मध्य तक तो आ ही चुका होगा लेकिन आज भी लोग सिर्फ़ तन से,कपडों और वेशभूषा से ही विकसित हो पाए हैं, मन से नहीं। लेकिन आज की ज़रूरत है लोगो का मन से विकसित होना अर्थात आधुनिक होना,अर्थात अपने विचारों को आधुनिक करना,इन्हे विकसित करना।सभी का समान भाव से देखे जाना। इसलिए स्त्री हो या पुरूष सभी के जीवन का उल्लेख होना ही चाहिए। ये बात तो बिल्कुल सत्य है कि नारी जीवन अधिक कठिन है क्योंकि उसे हमेशा ही दबाया गया है लेकिन आज नारी अपने आप को साबित करने की यथावत कोशिश कर रही है। लेकिन जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, उसी तरह अगर इस तथ्य के दूसरे पहलू को देखें तो एक पुरूष भी उतना ही संघर्ष करता प्रतीत होगा। उसे भी तो कई जिंदगियां जीनी होती हैं... एक स्त्री की ही भांति....
नर जीवन ....

कहने को तो एक पुरूष जीवन बहुत ही अच्छा माना जाता है.... और है भी,लेकिन संघर्ष तो कम नहीं इसमे भी.....
एक बेटा,जब जन्म लेता है,अनेकों खुशियाँ मनाई जातीं हैं...
एक वंशज जो मिलता है घर को...
धीरे-धीरे वह बड़ा हुआ... पंहुचा अपनी जवानी की
पहली सीढ़ी पर
और शुरू होती है संघर्षों की बेला
पहला संघर्ष
जब माँ-बाप की उम्मीदें उछाल मारती हैं
और बेटा जब चाह के भी पूरा नही कर पाता,और
फिर ताने
अब उसकी दूसरी सीढ़ी
जब वह बनता है एक पति
माँ-बाप के साथ-साथ एक और की उम्मीदें
जो है उसकी पत्नी
अब शुरू दूसरा संघर्ष
जब उम्मीदें पूरी करने के साथ ही
उसे पिसना पड़ जाता है, माँ और पत्नी के बीच
और उसके पास कोई रास्ता नही
पिसने के सिवा इन दो पाटों के बीच
जिसकी ना सुनो वो ही परेशान
फिर दोनों के ताने
और दोनों ही तो प्यारी हैं,फिर क्या करे इंसान??
और साथ ही वो है एक भाई...
जिसे करनी है अपनी बहन की बिदाई॥
इसके लिए भी संघर्ष
क्या होगा?? गर जोड़ी अच्छी न मिलाई??
और अब तीसरी सीढ़ी
जब बनता है एक पिता....
एक और नया संघर्ष,,,
बच्चों को जो पढाना है,,अच्छे संस्कार सिखाना है...
उनके हर अरमानों को जो पूरा करना है।
और संघर्षो का सिलसिला चलता रहता है,,
चलता रहता है....
लेकिन इतने संघर्षों के बाद भी उसे फल क्या मिलता है??
माँ से बुराई,, पत्नी से बुराई, इतना सब कुछ मिलता है। साथ ही जिन बच्चों के लिए दिन-रात मेहनत करता है। उनसे भी मिलता है तो सिर्फ़ उलाहना-"आख़िर आपने किया ही क्या है??" और फिर ताने....

इतने संघर्षों के बाद भी मिलते हैं तो सिर्फ़ ताने। और इन्ही तानो-बानों को बुनता, मिल जाता है माँटी में और तब कहीं जाकर उसे मिलते है संघर्षों से छुटकारा....

जब वो धरती माँ की गोद में जा लेटता है और धरती माँ देतीं उसे प्यार अपना सारा......

एक उलझन...

आज अचानक बैठे-बैठे वही ख़याल वापस दिमाग में आया,जो रह-रह कर हमेशा मुझे परेशान करता है। मुझे ही क्या, आप सब को भी हमेशा ज़रूर परेशान करता होगाऔर अगर आज तक आपने इस बारे में नही सोचा, तो मेरे इस लेख को पढ़ कर शायद आपका भी ध्यान इस ओर केंद्रित ज़रूर हो जाए। इतना तो विश्वास है । समस्या काफी बड़ी तो नही लेकिन मुझे काफ़ी परेशान करती है । मुझे ही क्या,आप सब को भी कभी न कभी काफी परेशान करती होगी और समस्या ये है कि,क्या हमारी मातृभाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी भाषा के आगे अपना वजूद खोती जा रही है? क्या,हमारी भारतीय संस्कृति, पाश्चात्य सभ्यता के आगे धूमिल होती जा रही है? आ गई न समस्या आपके भी ज़हन में? एक उथल- पुथल सी हो जाती है मष्तिष्क में जब ये बात ज़हन में आती है, कि कही सचमुच हम पाश्चात्य सभ्यता के आगे भारतीय सभ्यता को खोते तो नही जा रहे हैं ? हाँ,आज अंग्रेज़ी भाषा अंतर्राष्ट्रीय भाषा है तो उसका प्रभाव ज़रूर पड़ना चाहिए लेकिन डर है कि इस कदर पाश्चात्य सभ्यता हमारी भारतीय सभ्यता पर हावी ना हो जाए कि अपना वजूद ही खो दे और एक दिन पाश्चात्य संस्कृति का बोलबाला अपने देश में न हो जाए। आज के इस बदलते युग ने इस समस्या को और गहरा दिया है जब नेता जी के भाषण भी एकदम अंग्रेज़ी में होते हैं। यहाँ तक कि २६ जनवरी पर प्रधानमंत्री द्वारा दिया जाने वाला भाषण तक भी अधिकतर अंग्रेज़ी में ही होता है। मानती हूँ हर संस्कृति,हर भाषा का सम्मान होना चाहिए। हर भाषा हर जगह बोली जानी चाहिए। परन्तु भारतीय संस्कृति, जिसका अपना एक अलग ही वर्चस्व है । क्या उसे हमें यूँ ही खो देना चाहिए ? नहीं, बिल्कुल नहीं बल्कि ऐसा होगा भी नही । इस विषय पर अगर हम लोगों से बात करें तो पुरानी पीढी से लेकर नई पीढी तक का यही मानना होगा कि निसंदेह अंग्रेज़ी भाषा और पाश्चात्य सभ्यता आज कहीं न कहीं हिन्दी भाषा और भारतीय संस्कृति को प्रभावित अवश्य कर रहे हैं। लेकिन कभी हमारी भाषा,हमारी संस्कृति पर हावी नहीं हो सकते। इनका तो अपना एक अलग ही महत्व है। वो कहते हैं ना कि "जहाँ काम आवै सुई,का करी सके तलवार" यानि अंग्रेज़ी भाषा या पाश्चात्य सभ्यता कितनी ही तलवार क्यों न बने लेकिन हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता हमारी मातृभाषा हिन्दी जैसी सुई की जगह तो काम नही आ सकती न।

( ये तो मेरी सोच है। मेरा आप सब पाठकों से अनुरोध है कि जो भी इस लेख को पढ़े, अपने विचार ज़रूर व्यक्त करे कि क्या सचमुच हमारी संस्कृति, हमारी भाषा आज पाश्चात्य सभ्यता और अंग्रजी भाषा से इतनी प्रभावित हो रही है... )

माँ .....
( माँ....
भगवान हर वक़्त अपने हर एक बच्चे के पास नही रह सकते। इसलिए उन्होंने हमारी देखभाल करने के लिए माँ और बाबा को भेजा ....
उसी माँ को समर्पित ....)

जिसने है हमें जीवन दिया,
जिनके हैं इतने उपकार हम पर....
जो करती हैं इतनी परवाह सिर्फ़ हो सकतीं हैं एक माँ !!!
जो ख़ुद को भूखा रख कर भी बच्चों का पेट भरें....
ममता का गागर हैं जो....
सिर्फ़ हो सकती हैं माँ !!!
चाहे कितनी ही क्यों ना बुराई हो, पर उसका भी उद्धार करें....
दिन - रात कुपूत की भी जो परवाह करें ....
सिर्फ़ हो सकती हैं माँ !!!
सिर्फ़ हो सकती हैं माँ !!!
जिसने इसको पहचाना है, वो ही एक सच्चा बेटा है ....
ऐसे एक बेटे की इच्छा, बस करती है एक माँ....
माँ एक ऐसी देवी हैं जिनसे न बड़ा भगवान....
जिसने माँ का सम्मान किया, बस वो ही बना इंसान....
सिर्फ़ वो ही बना इंसान !!!!
आख़िर जो हमारी जननी हैं....
उनका क्यों न करें सम्मान ???
हर पग पर उन्होंने हमें दिया है ज्ञान....
एक "माँ" ही ऐसी शख्सियत हैं....
इनकी उंगलियाँ पकड़ हमने सीखा है चलना....
फिर उनके आगे शीश झुकाते क्यों शरमाना???
हम बेटियों को लेकिन छोङना पड़े इनका आँगन
जाने क्यों ये रीति बनाई जो छूटे अपना आँगन....
अपना आँगन छोङें, फिर भी माँ का छूटे साथ न....
हाँ, कुछ हो जीवन में चाहे ना, पर माँ की छाव सदा रखना....
पापा...
(मेरे पापा को समर्पित....
ये सिर्फ़ मेरी नही बल्कि हर बेटी की अपने बाबू जी के लिए भावनाएं होंगी .... )

पापा की हूँ प्यारी बेटी, पापा का गुमान हूँ मैं....
पापा की हूँ गोद में खेली, पापा का अभिमान हूँ....
पापा का गुरूर हूँ मैं, हाँ पापा का सम्मान हूँ....
इस सम्मान को कायम रखने को हर पल तैयार हूँ....
चाहे कुछ हो जीवन में ना, पर पापा बिन बेकार हूँ....
अपने बाबा की बेटी मैं, उनका ही तो अरमान हूँ....
जो चाहे मेरे बाबा वो ही है करना धर्म मेरा....
पापा की हर मर्ज़ी पर खरे उतरना कर्म मेरा....
लेकिन फिर भी एक दुःख है....
पापा को छोड़ के जाना होगा....
जाने कैसे हैं रीति- रिवाज़ ये, पर इनको तो निभाना ही होगा...
औरों की नही बाबा की खातिर....
इनको तो निभाना ही पड़ेगा....
कैसे रहूँगी बाबा बिन मैं ?
इनका आँगन छोड़ के ?
क्या होगा जीवन तब मेरा माँ-बाबा को छोड़ के ?
जिनके आँगन में खेली मैं, उनके कंधे चढ़ बड़ी हुई....
लेकिन देखो रीति ये कैसी.... आज उनके लिए ही परायी हुई....
क्या होगा मेरे बिन बाबा ?
कौन बनेगा आपका अभिमान ?
क्यों बनाया बेटी "कृष्ण" ?
क्यों ना पुत्र का जन्म दिया ?
कम से कम बाबा के अरमान तो पूरे कर पाती....
अपने बाबा के ही संग, पूरे जीवन भर रह पाती
पूरे जीवन भर रह पाती....
पूरे जीवन भर रह पाती....
पहली कृति....

(आज तक कभी कुछ नही लिखा कभी....

लेकिन आज कुछ लिखने को दिल कह रहा है...)

सभी को लिखते देख मेरा मन भी किया कुछ लिखने को...

कागज़ कलम तो उठाया पर शब्द नही थे लिखने को .....

बहुत सोचने के बाद भी कोई टॉपिक न मिला लिखने को,

दिल ने कहा रहने दो कुछ लिखने को....

नही ये सब काम तुम्हारा अब रहने भी दो लिखने को...

एक आवाज़ आई अन्दर से,,,,

मन ने कहा...

हार न मानो,,,

अब शुरू भी करो कुछ लिखने को ....

सोच कविता ये लिख डाली पर मिला नही कुछ लिखने को...

अब सोचा क्या हम भी बन पाएँगे एक कवि...

क्या हमे भी मिलेगा कुछ लिखने को???

दिल ने कहा छोड़ो,, अब रहने भी दो लिखने को...

अब रहने भी दो लिखने को...

अब रहने भी दो लिखने को......